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सीवान: अंग्रेजी हुकूमत के समय बिहार के सीवान में बड़े पैमाने पर नील की खेती होती थी. यहां सेमरिया पंचायत की प्रतापपुर कोठी नील की खेती की गवाह है. जब देश में अंग्रेजी हुकूमत थी तो यहां नील की प्रचुर मात्रा में होती थी. आज यहां हजारों एकड़ भूमि बंजर है.

कुछ हिस्सों पर खेती करने का प्रयास स्थानीय लोगों ने किया, लेकिन सफलता हाथ नहीं लगी. कुछ हिस्सों में हल्की फसल लगाई गई हैं, जहां पैदावार बेहतर नहीं होती है. जिस वजह से भूमि बंजर पड़ा है. कुछ हिस्सों पर बासफोर और राम बिरादरी के लोग निवास कर रहे हैं.

बंगाल के किसानों ने किया था नील की खेती का बहिष्कार

इतिहासकार कृष्ण कुमार सिंह बताते हैं कि अंग्रेजी हुकूमत के दौरान जब बंगाल के किसानों ने नील की खेती का बहिष्कार किया तो इसका असर बिहार पर भी पड़ा. सीवान के स्वतंत्रता सेनानी वृजकिशोर बाबू तथा देशरत्न डॉ. राजेन्द्र प्रसाद ने नील की खेती का बहिष्कार करने के लिये महात्मा गांधी को राजी किया तथा चंपारण के राजकुमार शुक्ला को गांधी जी से मिलवाया. अप्रैल 1917 को गांधी जी चंपारण आये तथा नील की खेती के विरोध में आंदोलन किया. इस आंदोलन ने अंग्रेजों को हिला कर रख दिया था तथा इसका असर राष्ट्रव्यापी हुआ. इस आंदोलन से प्रभावित होकर रविन्द्र नाथ टैगोर ने गांधी जी को महात्मा की उपाधि दी. श्री सिंह ने बताया कि प्राचीन काल से ही सीवान खेती व सम्पन्नता के मामले में समृद्ध था.

नील बनाने का साक्ष्य भी है मौजूद

दरअसल, सीवान जिले के नौतन प्रखंडके प्रतापपुर में अंग्रेजी हुकूमत के दौरान बड़े पैमाने पर नील की खेती हुआ करती थी. जिसका साक्ष्य आज भी मौजूद है. नील बनाने के लिये 16 टॉव( बड़ा नाद )बनाये गए थे. जिसमें नील को पकाया जाता था. प्रतापपुर में कतार बद्ध तरीके से खण्डरहित अवस्था में मौजूद है. वहां सिंचाई करने के लिये कुआं भी बनाया गया था. अंग्रेजों की दो मंजिला कोठी भी थी, जो अब ध्वस्त हो गई है.

 

एक हजार एकड़ में होती थी नील की खेती

 

प्रतापपुर में तीन बहुत बड़ा बखार बना है. जिसमें नील को तैयार कररखा जाता था. जो आज भी जीर्ण-शीर्ण अवस्था में विद्यमान है. यहां करीब एक हजार एकड़ से अधिक भूमि में नील की खेती होती थी और इसका अवशेष भी मिल जाता है. वर्तमान समय में यह हिस्सा अतिक्रमण का शिकार हो गया है. वहीं कुछ हिस्से पर खेती करने के प्रयास की गई है तो वहीं कुछ हिस्सा अबभी बंजर पड़ा हुआ है. स्थानीय मनोज कुमार सिंह बताते हैं कि उनके दादा जी बताते थे कि यहां अंग्रेज नील की खेती किसानों से कराते थे और नील भी तैयार कराते थे. उन्होंने बताया कि करीब एक हजार एकड़ से अधिक भूमि में नील की खेती होती थी जो वर्तमान समय में अतिक्रमण का शिकार हो गया है. उन्होंने बताया कि अगर इसमें कोई कम्पनी सरकार लगा दे तो क्षेत्रीय लोगों के लिये रोजगार का जरिया हो जायेगा.

सीवान की 85 %भूमि कृषि योग्य व उपजाऊ

इतिहासकार कृष्ण कुमार सिंह ने बताया कि नील की खेती से सीवान का बहुत बड़ा सम्बन्ध है, क्योंकि सीवान की 85 प्रतिशत भूमि कृषि योग्य व उपजाऊ थी. नील की अच्छी फसल हो जाती थी. यहां की भूमि उपजाऊ था तथा सिंचाई के लिये सटे (हिरण्यवती नदी) वर्तमान में सोना नदी थी. उन्होंने बताया कि नील की खेती के लिए अंग्रेज किसानों का दोहन और जबरदस्ती करते थे. अंग्रेजों ने तीन कठिया प्रथा चलाई थी जिसमें मजबूरी था कि लोगों को भूमि के एक तिहाई भाग में नील की खेती करना पड़ती थी. नील की जड़े काफी नीचे तक जाती थी तथा भूमि की उर्बरा शक्ति को खत्म कर देती थी. जिस कारण भूमि बंजर हो जाता था.

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